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May 13, 2024
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मिनिमम 33 परसेंट पर ही क्यों होते हैं पास, क्या ऐसा केवल भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में ही


देश के अलग-अलग राज्‍य के एजुकेशन बोर्ड 10वीं और 12वीं के बोर्ड एग्‍जाम्‍स के रिजल्‍ट्स घोषित कर रहे हैं. व्‍यवस्‍था के मुताबिक, जो स्‍टूडेंट कम से कम 33 फीसदी अंक हासिल कर लेता है, उसे परीक्षा में उत्‍तीर्ण घोषित कर दिया जाता है. इस बार ज्‍यादातर स्‍टेट बोर्ड्स के एग्‍जाम्‍स में लड़कियों ने बाजी मारी है. भारत में प्राइमरी और सेकेंडरी एग्‍जाम्‍स में पासिंग मार्क्स दुनिया में सबसे कम हैं. भारत में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में पासिंग पर्सेंटेज सभी राज्यों में 35-40 फीसदी के बीच है.

उत्तर प्रदेश में छात्रों को पास होने के लिए न्यूनतम 33 फीसदी अंक हासिल करने की दरकार होती है. पंजाब, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी इतने ही अंक चाहिए होते हैं. इसके अलावा केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई में भी उत्‍तीर्ण होने के लिए 33 प्रतिशत का मानदंड है. केरल बोर्ड की कक्षा 10 और 12 की परीक्षाओं को पास करने के लिए स्‍टूडेंट्स को कम से कम 30 प्रतिशत अंक हासिल करने होते हैं. केरल में पासिंग मार्क्‍स भारत के सभी राज्यों में सबसे कम हैं. बता दें कि भारत के अलावा पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश में भी पासिंग मार्क्‍स 33 फीसदी ही हैं.

कब और किसने शुरू की 33 फीसदी अंक की व्‍यवस्‍था
दिलचस्प है कि 1858 में गुलामी के दौरान भारत में ब्रिटेन ने ही पहली मैट्रिक परीक्षा आयोजित की थी. उस समय ब्रिटेन में न्यूनतम 65 फीसदी अंक पाने वाला ही उत्‍तीर्ण होता था. इसके बाद भी ब्रिटेन के अधिकारियों ने भारतीयों के लिए उत्तीर्ण अंक 33 फीसदी निर्धारित किए. दरअसल, ब्रिटिश शासकों का मानना ​​था कि भारतीय उनके मुकाबले केवल आधे बुद्धिमान ही हो सकते हैं. साफ है कि हम उत्‍तीर्ण अंकों के मामले में भी ब्रिटेन की शुरू की गई व्‍यवस्‍था को आज तक ढो रहे हैं. वो भी तब, जब भारत तकनीकी क्षेत्र में नए-नए कीर्तिमान गढ़ रहा है. यही नहीं, हमारा मानव संसाधन भी उद्योग की लगातार बदलती जरूरतों के मुताबिक तेजी से खुद को ढाल रहा है.

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भारत में पासिंग मार्क्‍स 33 फीसदी की व्‍यवस्‍था 1858 में ब्रिटिश शासकों ने शुरू की थी.

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चीन समेत दूसरे देशों में पास होने को कितने अंक जरूरी
जर्मन ग्रेडिंग प्रणाली ग्रेड प्वाइंट एवरेज (जीपीए) पर आधारित है. यह 1 से 6 या 5 प्वाइंट ग्रेडिंग प्रणाली है, जहां 1- 1.5 (भारतीय प्रणाली में 90-100%) ‘बहुत अच्छा’ है और 4.1- 5 ( भारतीय प्रणाली में 0-50%) ‘पर्याप्त नहीं’ है. चीन में स्कूल, कॉलेज और विश्‍वविद्यालय या तो 5 स्केल या 4 स्केल ग्रेडिंग प्रणाली का पालन करते हैं. फाइव स्केल ग्रेडिंग प्रणाली में 0 से 59 फीसदी तक अंक पाने वाले छात्रों को एफ (असफल) ग्रेड दिया जाता है. चार-स्तरीय ग्रेडिंग प्रणाली में ग्रेड डी दर्शाता है कि छात्र असफल हो गए हैं. शून्‍य से 59 फीसदी के बीच अंक पाने वाले छात्रों को डी दिया जाता है.

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इतने कम अंक पाकर पास होने से कहां होती है दिक्‍कत
भारत में स्कूलों में न्यूनतम उत्‍तीर्ण प्रतिशत बहुत कम माना जाता है. यह देश में उच्च शिक्षा प्रणाली में बिल्कुल उलटा है. अगर दिल्ली विश्‍वविद्यालय की ही बात करें तो किसी भी अच्छे कॉलेज में एडमिशन के लिए कट-ऑफ 95% से 100% रहती है. जो देश अपनी आबादी को जल्‍दी साक्षर बनाना चाहते हैं, वो कम उत्तीर्ण अंक की रणनीति अपनाते हैं. लेकिन, उच्‍च शिक्षा में इतने कम अंक परेशानी पैदा करते हैं. ज्‍यादातर लोग अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के कारण बाहर निकल जाएंगे, जबकि बाकी को प्रवेश नहीं मिल पाएगा. पश्चिमी देशों में ग्रेडिंग प्रणाली अलग-अलग हैं, लेकिन कोई भी तुलना कर सकता है और आकलन कर सकता है कि न्यूनतम उत्तीर्ण अंकों के मामले में वे कहां खड़े हैं.

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चीन और जर्मनी में स्‍टूडेंट्स को परीक्षा में पास करने के लिए ग्रेडिंग सिस्‍टम है.

दूसरे पैमानों पर भारतीय स्‍टूडेंट्स की स्थिति कैसी
भारत में बेहतर कौशल प्रशिक्षण को बढ़ावा देकर उत्पादक युवा कार्यबल बनाने के लिए जरूर कदम उठाए जा रहे हैं. कुछ अध्ययनों से पता चला है कि भारतीय छात्रों में पढ़ने, लिखने और समझने की क्षमता काफी निराशाजनक है. दुनिया भर के बच्चों से कक्षा 3 के अंत तक स्वतंत्र पाठक बनने की उम्मीद की जाती है. गैर-लाभकारी संस्था स्टोन्स2माइलस्टोन्स के अध्ययन में पाया गया कि कक्षा 4 के केवल 12.5 फीसदी ​​भारतीय छात्रों ने पढ़ने के मूल्यांकन में पाठ की पूरी समझ दिखाई. वहीं, कक्षा 5 और 6 के स्‍टूडेंट्स के साथ किए गए सर्वेक्षण में केवल 2.7% ने अच्छी समझ दिखाई.

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